Friday, March 6, 2009

बाबाओं के जाल में


हाल के दिनों में दो ऐसी फिल्में आई जिसमें भगवान और शैतान के बीच में विज्ञान पिसता दिखा। इन दो फिल्मों में एक है ‘फूंक’ तो दूसरी है ‘गाॅड तुस्सी ग्रेट हो’। फूंक में जहां नायक नास्तिक रहता है वहीं गाॅड....में हीरो भगवान के संपर्क में रहता है। लेकिन दोनों फिल्मों में जो समानता है वह यह कि इनमें वैज्ञानिक सोच खोजे नहीं मिलता। फूंक में नायक अपनी बेटी पर आए कथित काला जादू को समाप्त करने के लिए तांत्रिक की शरण में जाता है वहीं गाॅड.... में नायक भगवान से प्राप्त दैवीय शक्ति को उपयोग अपने फायदे के लिए करता है। इन फिल्मों को देखकर लगता है कि इस वैेज्ञानिक युग में भी हम वैचारिक रूप से बर्बर जाति की तरह रह रहे हैं और जहां चारो तरफ मात्र भूत-प्रेत, जादु-टोना, शैतान-भगवान ही दिखाई देता है। इन्हीं फिल्मों की तरह ही कुछ टीवी चैनलों ने यही घंघा अपना रखा है। विज्ञान कितना भी प्रगति क्यों न कर ले, टाइम मशीन भले ही क्यों न बना ले, वे तो मात्र बाबाओं और भूत-प्रेत का ही झुनझुना बजाएंगे।

खैर, फिल्म और मीडिया में अंतर है। फिल्मों को मनोरंजन का साघन माना जाता है जबकि मीडिया पर समाज को शिक्षित और जागरूक करने की जिम्मेदारी होती है। लेकिन बाबाओं के प्रभाव को दिखाकर मीडिया अपनी कौन सी जिम्मेदारी पूरी कर रहा है? क्या अभी बढ़ रहे कर्मकांड का एक प्रमुख कारण मीडिया की यह भूमिका तो नहीं है?चैनलों पर बढ़ते अंधविश्वास के बाजार पर एक चैनल पर गाहे-बगाहे अवतरित होने वाले एक बाबा ने प्रवचन की तर्ज पर बताया कि वर्तमान समय में पाप (अपराध, हत्या, बलात्कार...) बढ़ा है और पुण्य का प्रभाव बढ़ाने का रास्ता सिर्फ हम जैसे बाबा ही बता सकते हैं। उनकी यह दलील 14वीं शताब्दी में इटली के पादरियों द्वारा दिए गए उस बयान की तरह लगता है जिसमें वे कथित मुक्ति पत्र देने का दावा किया करते थें। खैर, बातचीत के क्रम में ही उन्होंने दबी जुबान यह जरूर स्वीकार किया कि वर्तमान समय में सामुद्रिक (वे महात्मा जो भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों जानते हैं) कम रह गए हैं और जो हैं वे टीवी पर नहीं दिखते।

लेकिन आर्थिक विश्लेषक बाबाओं के इस भ्रमजाल को जीने का फंडा कहते हैं। उनका तर्क है कि क्या किसी बाबा को आप ‘शुभ’ कहते या बोलते सुनते हैं? राशियों के बारे में बताते हुए प्रायः वे यही कहते हैं कि अमुक दिन आपको सावधानी रखनी है। इसलिए आप अमुक नग का पुजा कर धारण करें या इस मंत्र का जाप करें। उनका प्रवचन शनिवार को और भी ज्यादा दिखता है।

ये तो रही बाबाओं के बहाने अंधविश्वास फैलाने की कहानी। इसके इतर भी कई ऐसी खबरें आती हैं जिसके बहाने मीडिया कर्मकांड को बढ़ाता है। हाल ही में एक चैनल ने टाइम मशीन के प्रयोग का विश्लेषण किया। यह इतना भयावह था कि उसके डर से एक ग्रामीण लड़की ने आत्महत्या कर ली। ठीक इसी तरह पिछले सूर्यग्रहण को एक चैनल ने गर्भवती महिलाओं के लिए खतरनाक बताया और सलाह दी कि ऐसी महिलाएं ग्रहण के दौरान गोमुत्र और गोबर का लेप अपने पेट पर लगाए। अपनी बातों पर जोर देने के लिए उन्होंने कुछ ज्योतिषों को भी स्टूडियो बुलाया था।

बहरहाल, इस नए ट्रेंड का तो यह शुरूआती समय है। अगर टीवी चैनल इसी तरह की खबरों का प्रसारण करते रहें तो वह दिन दुर नहीं जब मीडिया खासकर इलेक्ट्राॅनिक मीडिया के पास शरीर तो होगा शायद जान भी हो लेकिन सोचने के लिए न तो दिमाग होगा और न ही समझने के लिए दिल। और तब मीडिया मात्र मनोरंजन का साधन बनकर रह जाएगा।

Wednesday, March 4, 2009

पत्रकार को धर्मनिरपेक्ष होना चाहिए?

इलेस्ट्रेटेड विकली के संपादक अनिल धारकर ने 19-25 दिसंबर 1992 के अंक में अपनी संपादकीय टिप्पणी में सहकर्मियों के साथ हुई बैठक का जिक्र किया है। यह बैठक 6 दिसंबर के बाबरी मस्जिद विध्वंस की छाया में हो रही थी । एक ने पूछा,‘‘आप के पास आडवाणी के इस आरोप का क्या जवाब है कि जब कश्मीर में इतने सारे मंदिर तोड़े गए तब किसी ने चूॅ तक नहीं की, दूसरी ओर एक- सिर्फ-एक मंदिर टूटी तो पूरा देश भड़क उठा?’’ दूसरे का मत था,‘‘हम लंबे अरसे से अल्पसंख्यकों की तरफदारी करते आये हैं।’’ एक और सहकर्मी ने शिकायत की ‘‘ बांग्लादेशी शरणार्थियों को हम क्यों आने देते हैं जबकि हमारे पास अपने लिए ही पर्याप्त साधन नहीं है। क्या केवल इसलिए नहीं कि वे अल्पसंख्यक हैं?‘‘( सदर्भ-भारतीय मुसलमानः मिथक और यर्थाथ)
यह इलेस्ट्रेटेड विकली के दफ्तर की तस्वीर मात्र ही नहीं है बल्कि यह इस ओर भी इंगित करती है कि पत्रकारीय मूल्य का कितना पतन हो चुका है? पत्रकारों के इन प्रश्नों के कई मर्म हैं। जिनमें मुख्य मुद्दा यह है कि जब उच्च शिक्षित वर्ग भी चीजों को केसरिया चश्में से देखेगा तो सड़क के आदमी से यह कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वह इन तरह की घटनाओं पर प्रतिक्रिया देते वक्त सांप्रदायिक बहाव में नहीं बहे? ऐसे में यह बहस लाजिमी है कि पत्रकार को धर्मनिरपेक्ष होना चाहिए अथवा नहीं।
पत्रकारीता का इतिहास काफी पुराना है। इस काल में पत्रकारों के लिए मुश्किल दौर भी आए और स्वर्णीम युग भी। पत्रकारों से हमेशा यह अपेक्षा की जाती रही है कि वह किसी भी मसले को धार्मिक चश्में से देखने के बजाय उसे निष्पक्षता की कसौटी पर तोले। सच्ची और सही तस्वीर पेश कर वह पत्रकारीय मूल्य को जीवित रखे। कहना गलत नहीं होगा कि कई ऐसे पत्रकार रहे हैं जिन्होंने पत्रकारीय मूल्य को जाति, धर्म और क्षेत्र से ज्यादा महत्व दिया। आजादी पूर्व की पत्रकारीता हमारे सामने है। तमाम मुश्किलों के बावजूद उस दौर के पत्रकारों ने अपने उसूलों और मजहबी एकता को टूटने नहीं दिया। यह दौर मिशन प्रधान था और मकसद थी, सिर्फ आजादी। इस मिशन को हिंदू-मुस्लिम जैसी कोई भावना प्रभावित नहीं कर सकी। मुल्क के प्रति वफादारी और हमदर्दी क्या होती है, इसका अंदाजा ‘पयामे-हिंद’ अखबार के संपादकों की शहादत से समझा जा सकता है। आजादी की लौ को जलाए रखने और ब्रिटिश सरकार का विरोध करने के कारण इस अखबार के कई संपादक शहीद हुए। मौत की सजा पाए सभी संपादकों का संबंध मुस्लिम कौम से था।
यहां गणेश शंकर विधार्थी का जिक्र लाजिमी है। सन् 1931 के कानपुर दंगे के बारे में विधार्थी ने लिखा था- रक्तपात ओर नरहत्या अच्छे काम नहीं। संसार के सुन्दर और सबल आदमियों का एक-दूसरे के गले काटना कोई मनोहारी दृष्य नहीं; वह आत्मा को कोई मृदु संदेश देने वाली चीज नहीं।- हालांकि इसी सांप्रदायिकता की आग को बुझाने के क्रम में उनकी हत्या कर दी गई। बावजूद वे पूर्वाग्रह को किनारे रखकर सच्ची तस्वीर पेश करने में सफल रहे। पत्रकारीय मूल्य को आत्मसात् कर चीजों को वस्तुनिष्ठ तरीके से देखना, उनकी विशेषता रही।
यह तो रही आजादी पूर्व की दास्तां। अब तस्वीर बदली है। पत्रकारीय मूल्य में आई गिरावट ने इस मिशन प्रधान क्षेत्र को मुनाफा प्रधान में बदल दिया। विभिन्न मसलों को धार्मिक नजरीये से देखने की स्थिति ने देश और समाज को कई तरह से नुकसान पहुंचाया। 1984 ई. में हुए हिंदु-सिक्ख दंगा, भागलपुर दंगा, सीतामढ़ी दंगा, गुजरात का दंगा, बाबरी मस्जिद विध्वंस या फिर मुम्बई बम विस्फोट- कई ऐसे उदाहरण हमारे सामने हैं जिसमें खबरों को धर्म के आधार पर परखा गया। 1990 ई. में लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा के दौरान अफवाहों को खबर बनाकर प्रमुखता से छापा गया। इन खबरों से कई जगह दंगे भड़क उठे। आगरा से प्रकाशित ‘ आज ’ ने तो 11-23 दिसम्बर 1990 को खबर छापी कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविघालय के जवाहरलाल नेहरू मेडिकल काॅलेज में भर्ती 32 मरीजों को जहरीला इंजेक्शन देकर हत्या कर दी गई है। खबर छपने के साथ ही माहौल गर्म हो उठा और कईयों को अपनी जान से हाथ घोना पड़ा। बाद में यह खबर गलत साबित हुई। ठीक इसी चरित्र जैसी खबरों को स्वतंत्र चेतना, स्वतंत्र भारत और दैनिक जागरण जैसे अखबारों ने भी छापा जो निराधार साबित हुआ। मीडिया के इस चरित्र पर जाने-माने मीडिया विषेशज्ञ सुधीश पचोरी ने लिखा है- 2007 ई. में अयोध्या में हुए शिलापूजन में मीडिया ने घंटों लाइव बिताए और देशभर में एक ‘अ-घटना’ को ‘बड़ी घटना’ बनाकर दिखाया। हम देखते हैं कि तब से मीडिया हर ऐसी हिन्दुत्ववादी घटना को इतना ज्यादा कवर करने लगा है कि गुजरात का मामूली-सा पादुका पूजन तक लाइव हो गया। इसका अर्थ यह हुआ कि मीडिया ने दर्शकों के बीच हिन्दुत्व को जमकर बेचने का काम किया। सेक्युलर विचारों को हाशिये तक पर नहीं रखा। (संदर्भ- मीडिया की परख)
क्या कारण है कि आम पत्रकार हिन्दु-मुस्लिम विवाद को निष्पक्ष नजरिये से नहीं देख पाता? जवाब आरक्षण विरोधी आंदोलन के वक्त उसकी भूमिका में देखा जा सकता है। जिस तरह अधिकतर पत्रकारों के हिन्दु रहने के कारण दलित और पिछड़ा वर्ग नहीं दिख पाया। उसी तरह हिन्दु-मुस्लिम विवाद में वे मुस्लिम पक्ष नहीं देख पाते। 9/11 के बाद अमेरिकी मीडिया पश्चिमी मीडिया की मुस्लिम विरोधी बातों ने हमारे यहां की मीडिया को भी प्रभावित किया है। पूर्वाग्रह से प्रेरित होकर हम भी आतंकवाद अथवा आतंकवादी कार्रवाई को सीघे एक धर्म विशेष से जोड़ने लगते हैं। दलील यह दी जाती है कि उनके धर्मस्थलों में आतंकवादी बनने की तालीम दी जाती है। क्या यह सच है? आजादी के 60 सालों के बाद भी मुसलमान अपने को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं-इसके पीछे कहीं-न-कहीं हमारी राजनीतिक व्यवस्था जिम्मेदार है। हम इन बातों को भूल जाते हैं और उन धर्मामवलंबी की नकारात्मक छवि अपने अवचेतन मन में बनाते हैं। ‘ मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना ’- को स्वतंत्रता दिवस पर सुनना तो अच्छा लगता है लेकिन उसके मर्म को समझकर रिपार्टिंग करना, शायद कठिन? पूर्वाग्रह से प्ररित रिपोर्ट न सिर्फ पत्रकारीय कर्म की तिलांजली देते हैं बल्कि भारतीय समाज की बुनियाद ‘ अनेकता में एकता ’ को भी कमजोर करते हैं।
मार्क्स ने कहा है कि धर्म अफीम की तरह है। निश्चित तौर पर हमारा समाज अफीम की गोली खाकर सोया है। विभिन्न परेशानियों से जुझने के बावजूद हम अपने अधिकारों के लिए शायद ही खड़े होते हैं। सोचते हैं- ‘ जाहे विधि राखत राम ताहे विधि रहिये ’। लेकिन समाज का एक जिम्मेदार व्यक्ति (पत्रकार) भी अफिम की गोद में सोकर सूचनाओं का प्रसारण करेगा तो देश और समाज को क्या दिशा मिलेगी?
दरअसल, मीडिया मुसलमानों के प्रति खास नजरिया अपनाकर न सिर्फ भारतीय समाज को नुकसान पहुंचा रहा है बल्कि अपनी विश्वसनीयता भी खोता जा रहा है। जरूरी नहीं कि सारे मीडियाकर्मी एक ही विचार के हों, लेकिन उनमें मानवीय मूल्यों की गहरी समझ तो होनी आवश्यक है। स्वतंत्र, समझदार, निष्पक्ष और आघुनिक मीडिया के लिए जरूरी है कि पत्रकार न सिर्फ धर्मनिरपेक्ष ही हो बल्कि वह पंथनिरपेक्ष और जातिनिरपेक्ष भी हो। तमाम तरह के पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर ही हम समाज को रचनात्मक प्रेरणा दे सकेंगे और पत्रकारीय दायित्व की रक्षा कर सत्य को उजागर कर सकेंगे।

Tuesday, March 3, 2009

छात्र आंदोलन की जरूरत

हेमेन्द्र मिश्रछात्र राजनीति के इतिहास पर निगाह डालें तो यह पता चलता है कि 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के गठन से पहले 1874 से ही छात्रों ने राष्ट्रीय स्तर पर आंदोलनात्मक गतिविधियां शुरू कर दी थी। आज एक बड़ा तबका छात्र राजनीति के पक्ष मंे नहीं दिखाई देता है। इसी मसले पर बीते दिनों जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में एक चर्चा का आयोजन किया गया।इसमें श्यामकृष्ण पांडेय की पुस्तक ‘भारतीय छात्र आंदोलनों का इतिहास’ को कंेद्र में रखकर चर्चा की गई।अपने समय के चर्चित छात्र नेता रहे श्यामकृष्ण पांडेय ने कहा, ‘जिंदा रहने का नाम नहीं है जिंदगी, जीना है तो जीने का सबब पैदा करो।’ उन्होंने युवाओं से इस दिशा में सोचने का और एक क्रांति छेड़ने का आहवान किया। काशी हिंदू विश्वविद्यालय में छात्र संघ अध्यक्ष रहे और अभी भारतीय जनसंचार संस्थान से संबद्ध आनंद प्रधान ने कहा कि सत्तर के दशक में छात्र राजनीति में अपराधियों के आगमन के कारण ही लोगों का इसके प्रति मोहभंग हुआ। उन्होंने कहा कि योजनाबद्ध ढंग से छात्र राजनीति को खत्म किया गया। कुलपतियों ने पहले छात्रों को भ्रष्ट बनाया फिर बदनाम करके आखिरी में उन्हें सुनियोजित तरीके से कैंपस से निकाल फंेका। जेएनयू छात्रसंघ की पूर्व अध्यक्ष कविता कृष्णन के मुताबिक छात्र राजनीति की सफाई तब ही संभव है जब छात्र आंदोलन कैंपस से बाहर निकलते हुए आम सवालों की बुनियाद पर खड़ा हो। जेएनयू छात्र संघ के मौजूदा अध्यक्ष संदीप सिंह ने सवाल उठाया कि आखिर कब छात्रों की स्वतंत्र भूमिका होगी?

Monday, March 2, 2009

मिले सुर मेरा तुम्हारा तो सुर बने हमारा ...

पं0 भीमसेन जोशी की आवाज में आपने ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा तो सुर बने हमारा’ गाने को दूरदर्शन पर बराबर देखा होगा। इस संगीतमय प्रस्तुती में भारत की पहचान ‘अनेकता में एकता’ दिखती है। 80 के दशक में आई इस गाने की जीवंत तस्वीर अगर देखनी हो तो आपका सूरजकुण्ड मेले में स्वागत है।
अरावली की वादियों में लगने वाले इस खूबसूरत ‘अन्तर्राष्ट्रीय क्राफ्ट मेले’ को हरियाणा सरकार आयोजित करती है। इस बार मेला का थीम मध्यप्रदेश है। इसकी झलक मेले के प्रवेशद्वार के समीप ही बनी प्रसिद्ध भीम बेटका की पहाड़ी की कलाकृति से दिखने लगेगी। इसके साथ ही मेले परिसर में ही बने ‘अपना घर’ में भील जाति को नजदीक से जानने का मौका भी आपको मिलेगा। इस मेले में प्रायः हरेक राज्यों से आए हस्तशिल्पी भाग लेते है और अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं। लेकिन जो बात इस मेले को अन्य मेलों से अलग करती है वह है, इसमें दिखने वाले लोकनृत्य। इसके लिए मेले में ‘चैपाल’ बनाया गया है, जहां कलाकार हर दिन अपने नृत्य को प्रस्तुत करते हैं। लेकिन इसके साथ ही अलग-अलग जगहों पर मंडली जमाए कुछ कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन करते भी दिखते हैं।
‘लाज बचाओ गजानन...’ गाने की घुन पर कठपुतलीयों की लचकती कमर आपको बरबस ही रूकने को मजबूर करेंगे। यह नृत्य अमरसिंह राठौड़ और सलावत खान की आगरे में हुई लड़ाई पर आघारित है। राजस्थान के इस प्रसिद्ध लोकनृत्य को तेजपाल नागोरी अपनी टीम के साथ मेले में लेकर आए हैं। चंद कदम दूर ही मध्यप्रदेश की काठी नृत्य भी आपको दिखेगी। इस नृत्य की विशेषता है कि इसका प्रदर्शन दीपावली के बाद के एकादशी से महाशिवरात्री तक यानि तेरह महीना तेरह दिन तक ही होता है। यह सृष्टी निर्माण की पौराणिक कथाओं से संबंघित है। मध्य प्रदेश कला परिषद् की तरफ से मांगीलाल मालवीय की टुकड़ी इसका यहां प्रदर्शन कर रही हैं। मेले में जिस लोकनृत्य की थाप दूर से ही सुनी जा रही है, वह है वृज रसिया नाच। यह नाच हरियाणा के मुख्य लोककलाओं में एक है। इस नाच में बजते नगाड़े की तेज और दिलकश आवाज आपके कदमों को बरबस ही थिरकने को मजबूर करेंगी। युवाओं की फौज तो मानो यहां से हटने को तैयार ही नहीं होती। इसके अलावा महाराष्ट्र, आँध्रप्रदेश सहित कई राज्यों के कलाकार भी आपको झुमाने को तैयार दिखेंगे। कला का सुरूर इस कदर आप पर चढ़ेगा कि चाहकर भी आप इससे नहीं बच सकते।
निश्चित तौर पर, मेले में कई सुर हैं और इन सुरों से सजी संगीत अनूठी। सूरों की यह महफिल इतनी दिलकश कि आप ‘‘वाह वाह...’’ कहे बिना नहीं रह सकते। तो भारत को समझने चलें सूरजकुण्ड...

Friday, January 23, 2009

सुरमयी अंखियों में बसा संजय वन

रंग बिरंगे और सुगंधित,
फूलों से कुतंल को साजे,
इंद्रनील की माला डाले,
शंख सरीखे सुधड़ गालों में ...
बाबा नागार्जुन की यह पंक्ति संजय वन के सौंदर्य को बखुबी परिभाषित करती है। संजय वन दिल्ली के महत्वपूर्ण वनों में एक है जहां की सुरमयी सुबह कई मामलों में अन्य वनों से अलग है।यह वन करीब 626 हेक्टेयर में फैला है। पूरब में यह ऐतिहासिक कुतुब मीनार, पश्चिम में जेएनयू, उत्तर में कटवरिया सराय और दक्षिण में महरौली को छुता है।
दिल्ली के खुबसूरत वनों में एक संजय वन की सुबह मनोहारी होती है। गुलाबी ठंडक में विचरते मोरों का झुण्ड, नीलगायों की चहलकदमी, और खरगोशों की अठखेलियों को देखना आंखों को सकुन देता है। इन सबके बीच विभिन्न पक्षियों की स्वर लहरियां भी कानों में मधुर रस धोलती है।
अरावली पहाड़ी का क्षेत्र होने के कारण यह वन अपने में कई खुबसुरत पेड़ों और छोटे-छोटे पर्वतों को समेटे हुए है। यहां कींकर, टीटू जैसे पेड़ों की छाया तो मिलेगी ही साथ ही केला और अमरूद का स्वाद भी चखने को मिलेगा। कंकड़ीली पगडंडी पर इन मैदानी फलों को खाते हुए चलना ठीक वैसा ही अनुभव है जो अनुभव गन्ने के खेत में गन्ना चबाते हुए चलने में होता है। हां, अगर चलते-चलते आप थक जाएं तो आप इस वन के बीचोबीच बने पार्क में आराम भी कर सकते है। इस पार्क में न सिर्फ बड़ों के लिए आराम करने की जगह है बल्कि बच्चों के मनोरंजन के लिए तरह-तरह के झूले भी हैं।
यहां सुबह-शाम धुमने आने वाले लोगों की कमी नहीं। इनकी तादाद लगातार बढ़ ही रही है। क्या कारण है कि यहां आने वाले लोगों की संख्या बढ़ रही है? जवाब राज कुमार टोकस देते हैं। ये नियमित यहां धुमने आते है और कटवरिया सराय में फूलों का व्यवसाय चलाते हैं। इनका कहना है कि यहां लोगों के आने का मुख्य कारण वन की खुबसूरत प्राकृतिक छटा तो है ही साथ ही इस वन क्षेत्र में स्थापित गोरक्षनाथ मंदिर भी है जो स्थानीय निवासियों के आस्था का महत्वपूर्ण केन्द्र है। इस मंदिर में मेला का भी आयोजन होता है। अक्टूबर में होने वाले इस मेले में गुरू गोरक्षनाथ के सैंकड़ों भक्त भाग लेते है। लेकिन श्री टोकस की राय से उनके मित्र श्याम सिंह तंवर सहमत नहीं हैं। तंवर, जो मार्बल का व्यापार करते हैं, कहते हैं कि शहर में काफी शोर-शराबा है और हर व्यक्ति तनाव में जीता दिखता है। इस भागमभग भरी जीवनशेली में इन जंगलों में ही आराम मिलता है। हंसकर सलाह की मुद्रा में श्री तंवर कहते हैं कि असल में पेड़-पौधों की गोद में ही मनुष्य शान्ति से जी सकता ।
बहरहाल अपनी खुबसुरती से लोगों को लुभाने वाले इस वन के देखरेख का जिम्मा दिल्ली विकास प्राधिकरण के पास है। यह लगातार यहां विकास कार्यों को कर रहा है।