Friday, March 6, 2009

बाबाओं के जाल में


हाल के दिनों में दो ऐसी फिल्में आई जिसमें भगवान और शैतान के बीच में विज्ञान पिसता दिखा। इन दो फिल्मों में एक है ‘फूंक’ तो दूसरी है ‘गाॅड तुस्सी ग्रेट हो’। फूंक में जहां नायक नास्तिक रहता है वहीं गाॅड....में हीरो भगवान के संपर्क में रहता है। लेकिन दोनों फिल्मों में जो समानता है वह यह कि इनमें वैज्ञानिक सोच खोजे नहीं मिलता। फूंक में नायक अपनी बेटी पर आए कथित काला जादू को समाप्त करने के लिए तांत्रिक की शरण में जाता है वहीं गाॅड.... में नायक भगवान से प्राप्त दैवीय शक्ति को उपयोग अपने फायदे के लिए करता है। इन फिल्मों को देखकर लगता है कि इस वैेज्ञानिक युग में भी हम वैचारिक रूप से बर्बर जाति की तरह रह रहे हैं और जहां चारो तरफ मात्र भूत-प्रेत, जादु-टोना, शैतान-भगवान ही दिखाई देता है। इन्हीं फिल्मों की तरह ही कुछ टीवी चैनलों ने यही घंघा अपना रखा है। विज्ञान कितना भी प्रगति क्यों न कर ले, टाइम मशीन भले ही क्यों न बना ले, वे तो मात्र बाबाओं और भूत-प्रेत का ही झुनझुना बजाएंगे।

खैर, फिल्म और मीडिया में अंतर है। फिल्मों को मनोरंजन का साघन माना जाता है जबकि मीडिया पर समाज को शिक्षित और जागरूक करने की जिम्मेदारी होती है। लेकिन बाबाओं के प्रभाव को दिखाकर मीडिया अपनी कौन सी जिम्मेदारी पूरी कर रहा है? क्या अभी बढ़ रहे कर्मकांड का एक प्रमुख कारण मीडिया की यह भूमिका तो नहीं है?चैनलों पर बढ़ते अंधविश्वास के बाजार पर एक चैनल पर गाहे-बगाहे अवतरित होने वाले एक बाबा ने प्रवचन की तर्ज पर बताया कि वर्तमान समय में पाप (अपराध, हत्या, बलात्कार...) बढ़ा है और पुण्य का प्रभाव बढ़ाने का रास्ता सिर्फ हम जैसे बाबा ही बता सकते हैं। उनकी यह दलील 14वीं शताब्दी में इटली के पादरियों द्वारा दिए गए उस बयान की तरह लगता है जिसमें वे कथित मुक्ति पत्र देने का दावा किया करते थें। खैर, बातचीत के क्रम में ही उन्होंने दबी जुबान यह जरूर स्वीकार किया कि वर्तमान समय में सामुद्रिक (वे महात्मा जो भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों जानते हैं) कम रह गए हैं और जो हैं वे टीवी पर नहीं दिखते।

लेकिन आर्थिक विश्लेषक बाबाओं के इस भ्रमजाल को जीने का फंडा कहते हैं। उनका तर्क है कि क्या किसी बाबा को आप ‘शुभ’ कहते या बोलते सुनते हैं? राशियों के बारे में बताते हुए प्रायः वे यही कहते हैं कि अमुक दिन आपको सावधानी रखनी है। इसलिए आप अमुक नग का पुजा कर धारण करें या इस मंत्र का जाप करें। उनका प्रवचन शनिवार को और भी ज्यादा दिखता है।

ये तो रही बाबाओं के बहाने अंधविश्वास फैलाने की कहानी। इसके इतर भी कई ऐसी खबरें आती हैं जिसके बहाने मीडिया कर्मकांड को बढ़ाता है। हाल ही में एक चैनल ने टाइम मशीन के प्रयोग का विश्लेषण किया। यह इतना भयावह था कि उसके डर से एक ग्रामीण लड़की ने आत्महत्या कर ली। ठीक इसी तरह पिछले सूर्यग्रहण को एक चैनल ने गर्भवती महिलाओं के लिए खतरनाक बताया और सलाह दी कि ऐसी महिलाएं ग्रहण के दौरान गोमुत्र और गोबर का लेप अपने पेट पर लगाए। अपनी बातों पर जोर देने के लिए उन्होंने कुछ ज्योतिषों को भी स्टूडियो बुलाया था।

बहरहाल, इस नए ट्रेंड का तो यह शुरूआती समय है। अगर टीवी चैनल इसी तरह की खबरों का प्रसारण करते रहें तो वह दिन दुर नहीं जब मीडिया खासकर इलेक्ट्राॅनिक मीडिया के पास शरीर तो होगा शायद जान भी हो लेकिन सोचने के लिए न तो दिमाग होगा और न ही समझने के लिए दिल। और तब मीडिया मात्र मनोरंजन का साधन बनकर रह जाएगा।

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